वह चुप थी,
उसकी आंखों में कुछ प्रश्न बोलते रहे.
उम्र सोलह अभी थी और
पिता समझा रहा था----
बेटी!
आपा जो रिश्ता लायी हैं,
लड़का परदेसी है.
उम्र में मुझसे ज़रा सा छोटा है
वो कहती हैं----
"तू खुश रहेगी,
तेरा भाई भी पढ़ लिख जाएगा,
तेरी बीमार माँ का खर्च भी वो उठाएगा.
थोड़ा घबरा रहा हूँ,
परदेस में तू कैसे रह पाएगी?
क्या तू उसके साथ निभा पायेगी?"
वह चुप थी.
उसकी आंखों में- - - - -
उसका मौन उसकी स्वीकृति मानी गई
ब्याह कर वो चली परदेस गई- - -
अभी गुज़रे थे चंद रोज़ कि,
एकदिन,
विवाह का शव लिए झुके कन्धों पे,
वह लौट आई.
आपा चिल्ला रही थीं---------
"इसने किसीको चैन से जीने न दिया,
तंग आकर ही शौहर ने इसे तलाक दिया!"
फ़िर भी--------
वह चुप थी
उसकी आंखों में- - - - -
वह आई थकी-थकी सी
चुप चाप वही बैठ गई.
पिता का क्रोध, खीझ और तिरस्कार झेलने के लिए--------
"तुझे मेरी मान मर्यादा, भाई कि शिक्षा,
माँ की बीमारी का ख्याल न आया?
तूने तो मुझे जीते जी दफनाया!"
वह चुप थी,
उसकी आंखों में- - - - -
बिना कुछ बोले, वह उठी,
मेहर की रकम पिता के हाथ पर रख दी.
फिर कांपते पैरों से सरकती,
भीतर चल दी.
उसकी टांगों के बीच फफक पड़ा उसका दर्द,
और पीछे खींचती गई
एक रक्त की लकीर!
वह चुप थी,
अब उसकी आंखों में कोई प्रश्न नही था.
प्रश्न अब झर रहे थे
पिता की आंखों से!
14 comments:
बड़ी मार्मिकता और प्रवाह से लिखी है आपने यह कविता. जीवन की विडम्बना का प्रभावी चित्र. धन्यवाद .
कारुणिक. अंदर तक आर्द्र कर देने वाली रचना है. बधाई स्वीकारें.
जिस धार पर स्त्री चलती है,
जिस तिरस्कार से गुजरती है,
जिस लांछन में वह खुलती है........वह तिलस्मी ताले की चाभी है,जहाँ से वह कंचन की लौ बनकर निकलती है.....
..... वह तो बस कुर्बान कर दी जाती है,गले की रुदन समाज की हिकारत से एक दिन तटस्थ हो ही जाती है और माँ दुर्गा उसके साथ हो जाती हैं.................
बहुत सहजता से इस मर्म को शब्द दिए हैं
मार्मिक!
wah.....
अच्छी रचना के लिये बधाई स्वीकारें
Apki rachnayain kafi pernadayak,marmik aur sbse badi baat zingdi ki vyathaoin se zudi hain. mera pranam svikar karin
danyavad.
करूणा का यह शव्द चित्र सिहरा दे रहा है । ऐसे दुख में नारी को डालने के लिए समूचा समाज अपराधी है । यह प्रहार है ....., उफ कहने के लिए जगह भी नहीं है ।
वास्तव में बहुत गहराई से ह्रदय को स्पर्श कर लेने वाली रचना ,, यथार्थ को अपने चिंतन से मुखर करते हुए प्रवाहित शब्द संयोजन .. बधाई
दर्द ऐसा कि मर्म पर चोट करे.कविता बहुत ही मार्मिक है साथ ही साथ भावनाओं का प्रवाह हिला के रख देता है.
बधाईयाँ
मुकेश कुमार तिवारी
अनूठी, मार्मिक और कितने सरल शब्दों से बताई ही व्यथा। हेट्स ऑफ़ .....
अब समय आ गया है कि हिंदी साहित्य में स्त्री कि शशक्त छवि प्रस्तुत कि जाये |अब तक पुरुष साहित्यकारों ने जो कुछ भी लिखा उनमे महिलाएं बेहद कमजोर,व्यथित और दुखो से सराबोर नजर आयीं |मेरी नजर में ये उस साजिश का हिस्सा था जिसमे हर कोई देंह से इतर स्त्री की कोई अन्य भूमिका देखना पसंद नहीं करता था ,चाहे वो साहित्यकार हो या फिर आम आदमी |
आप ने भी उस परम्परा को आगे बढाया ,आपकी नायिका की चुप्पी निश्चित तौर पर बेहद आपतिजनक है ,संभव हो तो उसको इस दोजख से निकालिए और उसे प्रतिरोध करने की सामर्थ्य दीजिये |आज हर कोई जीत देखना चाहता है ,क्यूंकि वो मुश्किल से नसीब होती है ,उसके पिता की आँखों के आंसू मैं किंकर्तव्यविमुढ़ता थी कोई प्रश्न नहीं,हाँ प्रश्न की उससे आशा थी ,जो चुपचाप लौट गयी
ज्योत्स्ना जी
बेमेल विवाह , स्वार्थ, परिस्थितियों पर पर बिना सूक्ष्मता से विमर्श किए जब भी कोई निर्णय लिए जायेंगे उनमें सुख-शान्ति की अपेक्षाएं कम ही होंगी, समझोते अधिक.......
आपका
विजय
Dost ji.. Aap kamaal ho.
bahot hi satik shabdo main stree ki vikat paristhiti ko darshit kar diya ...per lagta nahi hai ki ab badlaaw aana chaiye ?
sab kehte hai ki 21 vi sadi aa gai, beti aur bete main koi farq nahi.. per mujhe to yahi lagta hai ki aaj bhi mansikta wahi hai...
di... aapki rachnaein padhkar harbaar khud ko nishabd pati hoon. bahut hi marmik chitran hai...
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