Sunday, December 14, 2008

दीदी

मुझसे औपचारिक परिचय मेरे एक पत्रकार मित्र के माध्यम से हुआ। व्यवहारगत सभ्यता के अनुसार मैंने भी उन्हें अपने नाम सहित अपना परिचय दिया और अभिवादन किया। बात को उन्होंने ही बढाया, बोली-- "तुम से मिलकर अच्छा लगा." मैं उनके विषय में कुछ और सोंच पाती उससे पहले ही उन्होंने अपनी बात को विस्तार दिया-- "ऐसा लगता है की तुम्हे पहले भी कहीं देखा है."मैंने "ना" में सिर हिलाया और इस प्रकार प्रारम्भ हुआ हमारी व्यवहारिक बातों का सिलसिला कब व्यक्तिगत सीमा में प्रवेश कर गया पता ही नही चला, "दिवस अब विराम की ओर चला, हमें भी चलना चाहिए" कहते हुए उनहोंने बात को समाप्त करना चाहा परन्तु मैं स्वार्थी उनसे पुनः बात करने के मोह से अपने को विलग न कर पायी. सोचा, बात करने के लिए एक संबोधन तो होना ही चाहिए और झट से एक प्रश्न निवेदित कर दिया-- क्या मैं आपको दीदी कह सकती हूँ? एक सुंदर पंक्ति के साथ बड़ी सहजता से उनहोंने उत्तर दिया--"निःसंदेह! प्रश्न तो बहुत प्यारा है." बस तभी से वे मेरी अपनी हो गई, "मेरी दीदी"। अब मैं उनसे बात करने के लिए प्रतीक्षारत रहती हूँ। इसमे भी मेरा ही स्वार्थ निहित है। सोचती हूँ, क्या पता, उनके मुख से कब, कौनसी बात निकल जाए, और मैं फिर-फिर जी उठूँ। हाँ! वे ऐसी ही हैं-- आशाओं से भरी,सपनों से सजी, अपनेपन सी सोंधी, दुआओं सी रौशन,हौंसलों को भी जोश देती पर कहीं भीतर पीड़ा से आर्द्र भी हैं वो। अपना परिचय वे कुछ इस तरह से देती हैं-




सब पूछते हैं-आपका शुभ नाम?शिक्षा?
क्या लिखती हैं?
हमने सोचा - आप स्नातक कि छात्रा हैं
मैं उत्तर देती तो हूँ,
परन्तु ज्ञात नहीं,
वे मस्तिष्क के किस कोने से उभरते हैं!
मैं?
मैं वह तो हूँ ही नहीं।
मैं तो बहुत पहले
अपने तथाकथित पति द्वारा मार दी गई फिर भी,
मेरी भटकती रूह ने तीन जीवन स्थापित किये!
फिर अपने ही हाथों
अपना अग्नि संस्कार किया
मुंह में डाले गंगा जल
और राम के नाम का
चमत्कार हुआ.............
अपनी ही माँ के गर्भ से पुनः जन्म लेकर
मैं दौड़ने लगी-अपने द्वारा लगाये
पौधों को वृक्ष बनाने के लिए......
मैं तो मात्र एक वर्ष कि हूँ,
अपने सुकोमल पौधो से भी छोटी!
शुभनाम तो मेरा वही है
परन्तु शिक्षा?-मेरी शिक्षा अद्भुत है,
नरक के जघन्य द्वार से निकलकर बाहर आये
स्वर्ग कि तरह अनुपम,अपूर्व,प्रोज्जवल!!


जब भी उनका जीवन-विषय मेरी आंखों में चित्रगत होता है ,मैं असीम पीड़ा से भर जाती हूँ --आह !.....कैसे सहा उनहोंने ये सब ?आयु के उन वर्षों में जब नारी एक लता के समान वृक्ष से लिपट कर प्रेम और अवलम्ब चाहती है ,कैसे उनहोंने तिरस्कार को प्रेम में परिवर्तित कर ,उस लता पर आई कोमल कलियों को अभिसिंचित किया होगा ? कैसे उन्होंने उन कलियों को सहजता से पुष्पों में विकसित किया होगा ?उनका धैर्य ,शक्ति बन कर उनका संबल बन जाता है ,पर यहाँ भी उनकी विनम्रता उनके साथ होती है .तभी तो वे कहती हैं ----मेरे बच्चे ही मेरा जीवन-स्तम्भ हैं ,मेरा अवलम्ब हैं ,मेरे जीवन की जिजीविषा हैं .


तुम तीन,
स्तंभ हो मेरी ज़िंदगी के,
जिसे ईश्वर ने विरासत में दिया .....
जाने कैसे कहते हैं लोग,
ईश्वर सुनता नहीं,
कुछ देखता नहीं ......
यदि यह सत्य होता,
तोमैं स्तंभ हीन होती।
तुम्हारे एक-एक कदम
मेरे अतीत का पन्ना खोलते हैं,
पन्ने को देखकर,
फिर स्तंभ को देखकर
लोग नई बातें करते हैं......
यह दृष्टि-तुम्हारी देन है...
मेरी सफलता है यहकि,
तुम संगमरमर से तराशे लगते हो
मेरा सुकून है-तुम्हारे भीतर संगीत है प्यार का,
तुम स्तंभ हो
मेरे सत्य का!

क्रमशः.......

नोट: यदि आप को मेरी दीदी की कविताओं से सजी उनकी आतंरिक सुन्दरता को और अधिक जानना है तो बताएं और लेखन सम्बन्धी मेरी कमियों को भी बताएं.

16 comments:

विवेक सिंह said...

बेहतरीन कविताएं हैं . पेश करती रहें .

प्रवीण त्रिवेदी said...

हिन्दी ब्लॉग जगत में प्रवेश करने पर आप बधाई के पात्र हैं / आशा है की आप किसी न किसी रूप में मातृभाषा हिन्दी की श्री-वृद्धि में अपना योगदान करते रहेंगे!!!
इच्छा है कि आपका यह ब्लॉग सफलता की नई-नई ऊँचाइयों को छुए!!!!
स्वागतम्!
लिखिए, खूब लिखिए!!!!!


प्राइमरी का मास्टर का पीछा करें

रश्मि प्रभा... said...

मौन हूँ,.........आँखें नम हैं,कुछ क्या कहूँ.......बच्चों के चेहरे किताब बन गए हैं,जिसमें तुम्हारे लिए आदर है........

कडुवासच said...

... बहुत सुन्दर, प्रसंशनीय अभिव्यक्ति ।

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सच को प्रभावशाली तरीके से शब्दबद्ध िकया है ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com

प्रदीप मानोरिया said...

jyotsna jee bahut sundar kavitaa aur unke parichay ka sansmaran .. baakai bahut acchaa

Harshvardhan said...

bahut sundar kavita hai aapki
bas ise tarah se lekhan jaari rakhnein

Alpana Verma said...

स्वागतम्!
बेहतरीन कविताएं हैं.पेश करती रहें

विजय तिवारी " किसलय " said...

ज्योत्स्ना जी
नमस्कार
आपका आलेख और दीदी का परिचयात्मक साहित्य बहुत अच्छा लगा.
आपने सहज भाव में में लिखा और बताया की मैंने दीदी मान लिया,
ये आपकी पहल सार्थक रही, लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है, अक्सर मैंने तो धोखा ही खाया है, वैसे साहित्यकार अपने कोमल ह्रदय से किसी पर जल्दी ही विश्वास कर लेता है, मुझे भी लगता है, कोई मेरी बहिन हो, बड़े भाई हों, लेकिन रिश्ते निभाना बहुत ही कठिन है आज के स्वार्थी युग में
आपका स्नेहिल
डॉ विजय तिवारी " किसलय "
जबलपुर
मध्य प्रदेश

हिन्दीवाणी said...

आपकी दीदी के बारे में जानने की इच्छा तीब्र हो गई है। आशा है जल्द ही आपके जरिए आपकी दीदी के बारे में और भी कुछ जानने को मिलेगा। सुंदर अभिभव्यक्ति।

Unknown said...

aapka bahut bahut sukriya hamaare hausala afjaai ka....
bahut he accha likha hai ...bahut he sundar kavita hai.....

vangmyapatrika said...

बेहतरीन कविता.खूब लिखिए.अगर समय मिले तो http://vangmaypatrika.blogspot.com
http://rahimasoomraza.blogspot.com
http://hindivangmay1.blogspot.com

Unknown said...

lekhan main prayukt saili sadharan hai parantu kavitayen peeda se bhari hone par bhi ant main ashavadi ho jati hain

ati sundar

धीरेन्द्र पाण्डेय said...

kaphi sundar hai ..

ρяєєтii said...

i am निशब्द .... कुछ गुंजाईश ही नहीं रखी आपने शब्दों की ...

નીતા કોટેચા said...

आपकी हर बात दिल से निकली हुई है इसलिए सीधे दिल को छु गई...बस रिश्ते भी ऐसे ही होते है अगर दोनों दिल से रिश्ते बाधते है तो वो रिश्ते कोई नहीं तोड़ सकता..
आपने रश्मिजी के साथ के रिश्ते को एक नाम तो दिया है....मैंने तो वो रिश्ते को कोई नाम ही नहीं दिया है पर फिर भी बहोत अपने से लगे..शायद गत जन्म का कोई अधुरा रिश्ता रहा होगा..
ये हिन्दी जगत में नई नहीं हु..पर आप सब के जैसा हिन्दी तो नहीं आता मुजे, तो अगर लिखने में कुछ गल्ती हो जाये तो क्षमा कर देना.
आपकी कविता बहोत ही अच्छी है..

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