तुम्हारे शब्द,
मेरी चौखट पर
बिखरे पड़े हैं--
माना कि
तुम्हारे शब्द
सुन्दर हैं,
लुभावने हैं,
परन्तु हैं तो मकड़जाल ही--
जिनमें तुम प्रतिदिन
किसी मक्खी के फंसने की
प्रतीक्षा करते हो--
मैं, मक्खी नहीं हूँ,
मैं छिपकली की भांति,
तुम्हें निगलने का सामर्थ्य भी रखती हूँ--
ये तुम भी जानते होगे,
तभी तो,
तुम्हारे शब्द
बिखरे पड़े हैं,
मेरी चौखट पर---
नोट:- उपर्युक्त कविता में वर्णित "तुम" और "मैं" किसी व्यक्ति विशेष को इंगित कर नहीं लिखा गया है, अपितु अंतरजाल पर शब्दरूपी मकड़जाल द्वारा हो रहे भावनात्मक शोषण के विरुद्ध एक आवाज़ है.
23 comments:
तुम्हारे शब्द
सुन्दर हैं,
लुभावने हैं,
परन्तु हैं तो मकड़जाल ही--
वाकई शब्दों के मकड़जाल से निकल पाना कला है.
main makhi nahi
main chhipkali ke bhanti
tumhe nigalne ka samarthya rakhti hoon..........:)
ek alag se bimb ka prayog...lekin shandaar rachna...:)
सुन्दर शब्द रचना, गहरे भाव लिये बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
वाह्………………बिल्कुल सही पकडा है मकडजाल को……………सच को बयाँ करती एक बहुत ही खूबसूरत और सामयिक रचना।
बहुत ही अच्छी रचना...ऐसा ही होना चाहिए...मक्खी समझकर फंसना नहीं चाहिए....समय की यही मांग है...छिपकली बनना
कविता बहुत अच्छी है ...पर आपका नोट समझ से परे है ...भावनात्मक शोषण नेट पर ?
खैर ..अच्छी प्रस्तुति
ज्योत्सना जी बहुत ही संक्षिप्त में आपने मुद्दे की बात कह दी है। दो तीन दिन तृप्ति जी ने अपने ब्लाग पर एक पोस्ट लगाई है,जिसमें उन्होंने लिखा है कि अयाचित टिप्पणियों की वजह से उन्हें मॉडरेशन का सहारा लेना पड़ रहा है। ऐसे टिप्पणिकारों को आपकी इस कविता से सटीक संदेश जा रहा है।
आवाज़ उठाती कविता . सशक्त अभिव्यक्ति .. बेबाक आप अपनी बात कहने में सफल हुई हैं ..
didi makad jaal rachnaa ke dvara aapne chritrheen lampton ke munh pr jo tmacha mara he usse seena mera chuda ho gya he -----------------charan sparsh
aapne rachna ke madhyam se jo tmacha mara he lamton ke munha pr aap bdhayi ke hakdaar he didi-----
ज्योत्सना जी ! बिलकुल नए बिम्ब के माध्यम से समाज के कटु सत्य को उजागर करती आपकी यह रचना आपके परिपक्व सोच की परिचायक है ! बहुत अच्छा लिख रही हैं आप !
रचना तो बहुत सुंदर है.... पर आप कैसी हैं? उम्मीद है कि आप ठीक होंगीं....
वाह..शब्द है की मकड़जाल...एक उम्दा प्रस्तुति बधाई
jyotsana ji aaj ke logon par bahut fit baithati hai ye kavita. mai to iska kaayal ho gaya ji.
शानदार पोस्ट है, साधुवाद, कभी यहाँ भी पधारें. roop62 .blogspot .com
बड़ा सुंदर जाल बुना है शब्दों का... या यूँ कहें की मकड़जाल.... :)बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति
सुन्दर अभिव्यक्ति, शब्दों का अत्यधिक विवेकपूर्ण चयन, बधाई व साधुवाद , मेरे ब्लॉग का 'मैं और शब्द ' पढ़ें ,शायद सामंजस्य हो !
यह मकडजाल प्रभावी है!
ज्योत्सना जी
नमस्कार!
बहुत सुन्दर प्रतीक हैं... एकदम विषयानुकूल!
आपकी काव्य-भाषा भी काफी फड़कती हुई-सी... रोचकता को बरकरार रखती है यह भाषा। यक़ीनन मुक्तछंद में बहुत लोग लिख रहे हैं लेकिन कुछ गिने-चुने कवि ही साध पाते हैं ऐसी भाषा को।
पुनश्च, ‘सामर्थ्य’ शब्द को प्रायः लोग स्त्रीलिंग मानकर प्रयोग कर जाते हैं, आपने सही प्रयोग किया है।
एक अच्छी रचना पढ़कर आज तो जा रहा हूँ, फिर कभी आऊँगा अन्य रचनाओं से संवाद करने के लिए
...बधाई आपको!
achhi rahna hai... khaas baat ka ..makhi ka chhipkali ho jana laga... nayapan tha...
हाय ये शब्द बेचारे
करते रहते अभिब्य्ति ब्यक्त फिर भी जाते हरदम मारे
जब उमड़ा प्रेम लपेट दिया जब गुस्सा आई दे मारे
माँगा तो इनसे ही माँगा ,जब दिया इन्ही का साथ लिया
निज पीड़ा को इनसे बांटा ,निज सुख को इनसे रूप दिया
पर आज पड़े है देहरी पर कुचले से अनजाने से
लो देख आईना सब कोई , ले लो सीख ज़माने से
शब्दों से चलती है दुनिया शब्दों से भगवान चले
शब्दों से प्रेम उमड़ता है शब्दों से अरमा मचले
शब्दों से मिलता घाव , शब्दों से मरहम बनता
शब्दों से शब्दों का युद्ध , प्रेम, कवि की रसमय कविता बनता
wah...Comments ke zarye bhi aapne kuch aur makkhi pakad hi li.
Appreciate you Good job
keep posting.
मकड़ जाल कविता के माध्यम से आपके अवचेतन मन का सत्य बहार आ गया है.
कविता अच्छी है . बधाई !
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