Tuesday, February 26, 2013

आवरण

जानती हूँ
तुम्हारा दर्प
तुम्हारे भीतर छुपा है.

उस पर मैं
परत-दर-परत
चढाती रही हूँ
प्रेम के आवरण

जिन्हें ओढकर
तुम प्रेम से भरे
सभ्य और सौम्य हो जाते हो

जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं,
तुम्हारी खिसियाहट
कोंचती है
तुम्हारे दर्प को
और उठ बैठता है
वह फुंफकार कर

केंचुली की भांति
उतरते जाते हैं
प्रेम के आवरण
परत-दर-परत

हर बार की तरह तुम
क्षण भर में ही
उगल देते हो
ढेर सारा ज़हर
मेरे पीने के लिए

इस बार मैंने
ज़हर के बदले ज़हर को
न तो उगला है
न ही अंदर समेटा है
नीलकंठ की तरह

ओढ़ लिया है
एक आवरण मैंने भी
देखो न!
मेरी आँखों में चमक है
और चेहरे पे मुस्कराहट...
.

Saturday, December 8, 2012

किताब

जागते हुए शब्दों के बीच
सोते हुए अर्थों में
बंद एक किताब

अपने में समेटे
कई- कई इतिहासों की पुनरावृत्ति
भूगोल की नयी परिभाषाएं
जीत से हार और
हार से जीत का मनोविज्ञान

समस्याओं से संघर्ष
परास्त होते हौसलों को
जुटाने का सामर्थ्य
विडंबनाओं का आर्तनाद

खण्ड-खण्ड में विभाजित
हर खण्ड का अपना तिलिस्म
मृग मरिचिकाओं की
लंबी फेहरिस्त

आशाओं की उड़ान का
थक कर ,
अंतिम पड़ाव पर ठहर जाना
सब कुछ लिपटा है
पाकीज़ा ज़िल्द में

है तैयार
होने को अनावृत्त
बीच से खोल कर
या कुछ पन्ने पलट कर
मत देना प्रतिक्रिया
सहज अभिव्यक्ति पर .

पढना मुझे ,
ऊपरी आवरण से
अंतिम पृष्ठ तक
फिर करना
मेरे मूल्य का निर्धारण

बदलते समय में
कुछ एडिटिंग के बाद
फिर आऊँगी
नए आवरणों में
नए नामों के साथ .



Monday, March 12, 2012

“ आरक्षण मेरे लिए क्यों ? ”

नहीं चाहिए मुझे
तैंतीस प्रतिशत आरक्षण
देना चाहते हों
यदि बराबरी का अधिकार
तो, मत मारना मुझे गर्भ में
जन्म लेने देना
सहजता से संतान के रूप में--

मत होने देना
मेरे साथ कोई भी पक्ष-पात
शिक्षा , खान पान या खेल कूद में--


मत समझना विवाह को,
माध्यम वासनापूर्ति का
धैर्य से करना प्रतीक्षा
प्रेम से आप्लावित
एक सहमति की,
जन्म देने देना
मुझे मेरी स्वप्निल संतानों को--


मुझे तुम्हारे धिक्कार की नहीं
वरन, जरूरत है उन हौसलों की
जो देते आये हो
तुम अपनी पुल्लिंग संतानों को,
नाम रौशन करने की थाती
उनके ही पास नहीं ,
मुझ पर भी भरोसा करना--

करने देना
मुझे भी वे
छोटी- छोटी गलतियाँ
जो रही हैं, तुम्हारे लिए
सदा ही क्षम्य
माफ कर देना मुझे
उन सभी बातों के लिए
जिनके लिए
तुम कह देते हों
मुझे चरित्र-हीन्
और स्वयं को विचलित-- .



करती रही हूँ
तुम्हारी असहमतियों का भी
अकाट्य समर्थन,

ओढ़ लेती हूँ
अपने सिर,
तुम्हारी गलतियाँ

समेट लेती हूँ
अपने आंचल में
तुम्हारी बेचैनियाँ

भर देती हूँ
तुमहारे भीतर प्रेम--

मेरी ममता
जब भी
तुम्हारा माथा सहलाती है
खींच लाती है
तुम्हारी पेशानी की सारी लकीरें
अपने हाथों में--.


हर बार , हर रूप में
देती रही हूँ तुम्हे संबल
करती रही हूँ तुमसे प्रेम
करती रही हूँ तुम्हे आरक्षित
तो आरक्षण मेरे लिए क्यों ?

Wednesday, September 21, 2011

खुशबू

उससे बिछड़ते हुए
मैंने उसे एक डायरी दी
इस वादे के साथ कि
वह लिखेगा,
हर रोज़
एक नई कविता-

और उसके दिये फूल
सुरक्षित हैं,
आज भी
मेरी पाकीज़ा किताबों में-

बरसों बाद
जब भी सुन लेती हूँ
दर्द से भीगी
उसकी गज़लें-

पैबस्त हो जाती है
मेरे भीतर
एक खुशबू
सूखे गुलाबों की--

Wednesday, May 4, 2011

पतंग

कौन देता है आकार
नहीं जानती है
बस ! रंगों से सजी,
डोर पर तनी,
उन्मत्त हो उडती है,
उन्मुक्त आकाश में--

पवन के संग पर इठलाती,
ठुमकियां लेती,
अपने अस्तित्व की तलाश में,
इधर से उधर भटकती--

आत्मरक्षा में,
दूसरों के कन्ने काटती,
विवश ईर्ष्या के पेंचों में उलझ
कभी स्वयं कट जाती---

छत की मुंडेर से लहराता
कभी कोई हाथ
संभाल लेता तो,
जिजीविषा बढ़ जाती,
नहीं तो,
अधिकारों की छीनाझपटी में,
हो जाती है, चिंदी-चिंदी--

उसे, अपने गर्भ में सहेजती है धरा
परतों के भीतर,
और भीतर,
देती है जन्म
नव पादपों के रूप में,
एक अंतराल
परिणित कर देता है
उसे वृक्षों में--

वृक्षों की त्वचा से निकल,
जाने कितनी ही
यातनाओं के द्वार खोलती,
जन्म से जन्म तक
मृत्यु को भोगती,
क्रियाओं की वीथिका से,
जब बाहर आती,
तो, बन जाती है,
वही कागज़---

फिर से-
भरे जाते हैं, जीवन के रंग,
आदर्शों और संस्कारों की
कांट-छांट
देते हैं एक आकार,
बाँस-हड्डियों पर
लेई- मज्जा से चिपकी,
लचकती दृढता के साथ,
बन जाती है
नियति की चकरी पर आश्रित
एक पतंग---

कदाचित इस बार जीवन-डोर
उसे पंहुचा सके,
शून्य की अनन्तता तक ---

Thursday, March 3, 2011

एक मुलाकात : डॉ० कुमार विश्वास के साथ

डॉ० कुमार विश्वास के गांधीनगर आगमन का यह प्रथम अवसर नहीं था, न ही मुझसे मिलने का. एक औपचारिक परिचय पहले भी हो चुका था, और वे गांधीनगर भी पहले कई बार आ चुके थे. उनसे गांधीनगर में मिलने का यह प्रथम अवसर अवश्य था.

मैं दिए गए नियत समय से पूर्व ही पहुँच कर पतिदेव के साथ होटल के प्रतीक्षा-कक्ष में, उनकी प्रतीक्षा करने लगी. होटल के रिशेप्सनिस्ट ने बताया- विमान सेवा में समय व्यवधान के कारण वह विलम्ब से पहुँच रहे हैं.

लगभग आधे घंटे बाद उन्होंने इन्जीनियरिंग कर रहे छात्रों के साथ प्रवेश किया- "पाण्डेय जी नमस्कार!" और हाथ आगे की ओर बढ़ा दिया. मैंने देखा वे पतिदेव से मुखातिब थे. यह उनकी तीव्र स्मरण शक्ति ही थी, जिसके कारण वे छः माह पूर्व हुए एक औपचारिक परिचय को याद रख पाए..
मिलने के पश्चात होने वाली औपचारिकताओं को निभाते हुए हम उनके कक्ष तक आ पहुंचे. साथ आये छात्रों को उन्होंने प्रतीक्षा-कक्ष में प्रतीक्षा करने को कहा और हमारे लिए चाय का ऑर्डर देकर, वाशरूम में चले गए.

कुछ देर बाद आये, तो मैंने कहा- "छात्रों के बीच तो आप बहुत लोकप्रिय हैं, बड़ी प्रशंसा होती है आपकी."

"हाँ! यह सच है कि प्रशंसा होती है, परन्तु आलोचना भी कम नहीं होती"

"तो क्या आप आलोचनाओं से डरते हैं?"

"नहीं! मैं आलोचनाओं से नहीं डरता, वरन उन्हें सकारात्मक दृष्टि से लेता हूँ. जो लोग मेरी आलोचना करते हैं, वे सभी किसी न किसी रूप में हिन्दीभाषा से जुड़े है, इसलिए मैं उन्हें अपना मानता हूँ. वे मुझसे प्रेम करते हैं. मेरी प्रसिद्धि चाहते हैं, इसीलिये मेरे विषय में सोचते हैं, कहते हैं, और लिखते हैं. और हाँ! आलोचना के माध्यम से ही सही मुझे चर्चाओं में भी रखते हैं." एक सहज हास उनके होंठों पर आकर ठहर जाता है.

"छात्रों के बीच आने का कोई खास प्रयोजन है क्या ?"
" हाँ! भारतीय जनगणना के आकडों के अनुसार भारत में साठ करोड़ युवा है, जो हिन्दी से इतर भाषाओं की ओर मुड गया था. उनमे से यदि तीस करोड़ युवाओं को भी मातृभाषा की तरफ लौटाकर ला पाया, तो क्या यह खास प्रयोजन नहीं?
कालेजों में रॉकबैंड की जगह कविता-पाठ हो रहा है, क्या यह खास प्रयोजन नहीं ?
यदि भारत का युवा हिन्दी से जुड़ रहा है तो निश्चित ही भारत हिन्दी से जुड़ रहा है. युवाओं में वह शक्ति है, जो देश की गति को बदलने का सामर्थ्य रखती है. देश का युवा ही हिन्दी को मातृभाषा का गौरव प्रदान करा सकता है, आवश्यकता है उसे जाग्रत करने की. क्या यह खास प्रयोजन नहीं?

मेरे गीत यदि हिन्दी से जुड़े रहने का माध्यम बनते हैं तो ये मेरा सौभाग्य है."

हमें बात-चीत को विराम देना पड़ा क्योंकि छात्र पुनः उपस्थित थे, और समय का भान कराते हुए,डॉ० कुमार विश्वास से कार्यक्रम में शीघ्र पहुँचाने का आग्रह कर रहे थे.मुझे समय की कमी अखर रही थी.कई प्रश्न अभी भी मन में अंगडाइयां ले रहे थे, जिन्हें पूछना शेष रह गया.वो शेष फिर कभी....

(यह पोस्ट डॉ० कुमार विश्वास से हुई संक्षिप्त वार्ता पर आधारित है. बातचीत की उनकी चिर-परिचित शैली,जिसमें उनकी टिप्पणियाँ भी सम्मिलित हैं, जिन्हें आपके समक्ष नहीं रख पाई हूँ.)

Thursday, February 24, 2011

अनिरुद्ध जी की 'पनिहारिन'

प्रकृति अनुरागी श्री अनिरुद्ध जी के साक्षात्कार को आप सभी ने पढ़ा, व सराहा. उनके द्वारा भोजपुरी भाषा में रचित काव्य संग्रह "पनिहारिन" अपनी माटी की सोंधी सुगंध का एहसास दिलाती है. विहान के गीत , साँझ के गीत, खेत-खलिहान के गीत, देश-गीत, छंद, लय,अलंकार आदि सभी साहित्य की परंपरा का अनुनाद करते हैं.

नवदिवस का स्वागत करती सूर्य की प्रथम रश्मि पनिहारिनों के आगमन का सन्देश देती है --

"पनिहारिन भरल डगरिया, भोर पहर की बेला |
एक घइलिया माथे बइठल,दूजा चढ़ल कमरिया,
घइला में गलबँहिंया देले, लपकत चलल संवरिया,
लहर-लहर पुरवइया लहरे, लहंगा लहर भरेला ||"

सूर्य की पहली किरण हो अथवा संध्या- समय के रक्ताभ आकाश का किसी सरोवर में समाना, अनिरुद्ध जी के गीत प्रकृति से मानव को जोडते हैं--

"ताल-ताल,नदिया दिन भर फेंके जाल सुरुज
खींचे गुटिआवे अब लाल-लाल डोरी
झांझ साँझ झमकावे किरण सोन मछरी ला
मछुआ मग झांके गछिया सांवर गोरी"

संध्या सुंदरी अपनी झांझर झनकाकर बाट जोह रही है,उस सूर्यरूपी मछुहारे की जो किरण रुपी सोने की मछली लाने के लिए दिन भर जाल फेंकता है सरोवरों में.अब लाल-लाल डोरियों को घसीट कर उन्हें इकठ्ठा कर रहा है.

ऋतु-गीतों को प्रकृति के आँचल पर अलग-अलग संवेदना, और अद्भुत रंगों से सजाने में अनिरुद्ध जी का कोई सानी नहीं. सावन में गाईजाने वाली कजरी का विरह-नाद हो, या फूलों के रंग में रंगे वसंत का अलसाया यौवन, होली की ठिठोली हो, या चैता की एकांत उदासी, सभी का अपना स्थान कवि के गीतों में सुनिश्चित है--

"महुआ बन फूल झरे, मद मातल नैना रे
महकत मग धूर ,हवा पी बोतल बैना रे"

"धरती ओढ़े रंगल दोलाई, धानी बिछल चदरिया
पीयर रंगल छींट के पगड़ी, हरियल रंगल घंघरिया"

सन १९६२ में भारत-चीन युद्ध काल में समय की मांग को देखते हुए अनिरुद्ध जी ने देश के जवानों में जोश भरने के लिए अनेक देश गीतों की रचना की. अनिरुद्ध जी द्वारा भोजपुरी भाषा में लिखा गया प्रयाण-गीत हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के अत्यंत ओजपूर्ण गीतों में से एक है --

"आज महाधार में, देस के पुकार बा,
करम के गोहार बा,सामने पहाड़ बा,
तू जवान बढ़ चल, झूम-झूम बढ़ चल
बान बन कमान पर,सनसनात चल चल "

व्याकरण की दृष्टि से समृद्ध उनके गीत साहित्य की अनुपम धरोहर हैं, अनिरुद्ध जी के गीतों की मूर्धन्य साहित्यकारों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है---

"श्री अनिरुद्ध जी की रचनाएँ सुनने का प्रायः ही अवसर मिला है.जिन लोगों ने भोजपुरी के ग्रामीण सौंदर्य की रक्षा करते हुए उसमें माधुरी और लालित्य भरने की कोशिश की है, उनमें अनिरुद्ध जी एक प्रमुख युवक हैं. इनका मधुर कंठ इनके गीतों में और भी रस भर देता है. मेरी कामना अनिरुद्ध जी चिरंजीवी हों और अपनी वाणी की रस माधुरी से लोगों के हृदयों को तृप्ति देते रहें."
श्री रामवृक्ष बेनीपुरी
मांझी
२५-१-५३
"अनिरुद्ध जी की कविताएँ बहुत ही सरस और अनूठी कल्पना से अलंकृत हैं. मैं समझता हूँ कि उनमें ओजगुण की वृद्धि और होगी. नि:संदेह उनमें एक प्रतिभाशाली कवि की रचना शक्ति है. मैं उनके विकास को उत्सुकता से देखता रहूँगा."
रामविलास शर्मा
छपरा
१-६-५३
"श्री अनिरुद्ध जी के गीतों में भोजपुरी के प्राणों का आर्द्र माधुर्य है. एक ऐसी निश्छल सरलता, जो रसानुभूति से द्रवित हो गीत की कड़ी बन जाये, कवि अनिरुद्ध में पाई जाती है. परिमार्जन के पश्चात गीतों के आकाश में कवि के प्रिय स्वरों को उड़ान भरने योग्य पर प्राप्त होंगे. इतना ही नहीं, अधिक तन्मयता उन्हें जन-जन के मन प्राणों में नीड़ बनाकर बस जाने की क्षमता प्रदान करेगी, विश्वास है.
जानकी वल्लभ शास्त्री
हाजीपुर
३१-१०-५५

"अनिरुद्ध जी की भोजपुरी कविताएँ बड़ी सुन्दर और सामयिक हैं. होनहार कवि के आगे बढ़ाने की कामना करता हूँ.
राहुल सांकृत्यायन
छपरा
१८-१-५६

"श्री अनिरुद्ध जी भोजपुरी काव्य के रससिद्ध कवि हैं.कविताओं में रस का स्रोत उमड़ पडता है.इनके पढने में भी वह जादू है कि सुनने वाले विभोर हो उठाते हैं .जहाँ तक भोजपुरी कविताएँ सुनने को मिली हैं, मुझे अनिरुद्ध जी की कविता सबसे अधिक पसंद आई है. मैं इनके उत्तरोत्तर विकास की कामना करता हूँ."
श्री श्याम नारायण पाण्डेय
आजमगढ़
१२-२-५६

"श्रीअनिरुद्ध जी की रचना "पनिहारिन"सुना. उसमें ग्राम को छूकर बहती नदी का प्रवाह है.स्वाभाविकता के साथ ही साथ माधुर्य की छटा जो कवि ने उसमें भर दी है उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे, उसमें फूलों के साथ -साथ दीप भी जलते बह रहे हों. उसकी गूँज मेरे कानों में बहुत दिनों बनी रहेगी."
बच्चन
छपरा
२६-११-५६

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