Tuesday, February 26, 2013

आवरण

जानती हूँ
तुम्हारा दर्प
तुम्हारे भीतर छुपा है.

उस पर मैं
परत-दर-परत
चढाती रही हूँ
प्रेम के आवरण

जिन्हें ओढकर
तुम प्रेम से भरे
सभ्य और सौम्य हो जाते हो

जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं,
तुम्हारी खिसियाहट
कोंचती है
तुम्हारे दर्प को
और उठ बैठता है
वह फुंफकार कर

केंचुली की भांति
उतरते जाते हैं
प्रेम के आवरण
परत-दर-परत

हर बार की तरह तुम
क्षण भर में ही
उगल देते हो
ढेर सारा ज़हर
मेरे पीने के लिए

इस बार मैंने
ज़हर के बदले ज़हर को
न तो उगला है
न ही अंदर समेटा है
नीलकंठ की तरह

ओढ़ लिया है
एक आवरण मैंने भी
देखो न!
मेरी आँखों में चमक है
और चेहरे पे मुस्कराहट...
.

16 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर प्रेम एवं दर्द की प्रस्तुति,आभार.

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर प्रेम एवं दर्द की प्रस्तुति,आभार.

Dr. sandhya tiwari said...

bahut sundar rachna

mukti said...

बहुत अच्छी लगी कविता...

ANULATA RAJ NAIR said...

वाह...
बहुत बढ़िया....
जैसे को तैसा......

अनु

Ram janam said...

achha hai

सुनीता जोशी said...

Uttam Rachna.

शारदा अरोरा said...

bahut sundar ...ye to khud ko jeetna ho gya...

Yogi Saraswat said...

बहुत सुन्दर शब्द

shashi said...

beautiful.....

Sumit pandey said...

जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं...
behad sundar

Sumit pandey said...

बहुत ही सुन्दर, kashmakash ko chitrit karti abhivyakti

Unknown said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
http://kaynatanusha.blogspot.in/

Ishita said...
This comment has been removed by the author.
Ishita said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

nice ! check the link for new poem and quotes :

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