दिन के उजालों में
भ्रम मुस्कराते है--
गणितीय उतार-चढावों का
आकलन करती एक दृष्टि
तन को स्पर्श करती है-
दूसरी बंद हो जाती है,
आत्मसात करने के लिए
प्रीति की सुगंध--
एक विकल है,
प्रतीक्षा में
निस्तब्ध अंधेरों की-
दूसरी,पलकों के भीतर सहेजती है,
चंचल स्वप्न--
बंद दरवाजों के पीछे-
लज्जा, सिकुड कर
भय में बदल जाती है,
अपने भुज-बल पर
इतराता दर्प
और भी वीभत्स हो जाता है,
कामुक अंधेरों में--
सुसुप्त है,
एक दृष्टि
श्रम और मद से शेथिल,
निश्चिन्तता के साथ-
दूसरी, खंरोचे गए अंतस की
पीड़ा से व्यथित
स्वतः बंद हो जाती है,
ढलक जाते हैं,
चंचल स्वप्न--
दिन के उजालों में
भ्रम फिर मुस्कराते हैं---
26 comments:
बहुत सुंदर कविता, बहुत ही भावपूर्ण.
भ्रम में मुस्कुराना ..
.दूसरी, खंरोचे गए अंतस की
पीड़ा से व्यथित
स्वतः बंद हो जाती है,
ढलक जाते हैं,
चंचल स्वप्न--
यह पंक्तियाँ बहुत कुछ कह गयीं ....बहुत संवेदनशील रचना
कुछ भ्रम बहुत खूबसूरत होते हैं
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (9/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
इस छोटी सी कविता में आपने इतने सारे नए बिम्ब प्रयोग किए हैं कि आश्चर्यचकित हुए बिना रहा नहीं जा रहा। खासकर गणितीय आकलन की दृष्टि वाला बिम्ब। बधाई।
bhram bhi kyaa itna mahatwpoorn hota hai? Yah to aaj hi jana manan karne yogy post..Thanks
कलात्मक और भावनात्मक दृष्टि से उत्तम रचना !
बधाई!
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति
बहुत से नवीन बिंबों को लेकर सजाया हि इस रचना को ... बहुत लाजवाब रचना है ...
सुसुप्त है,
एक दृष्टि
श्रम और मद से शेथिल,
निश्चिन्तता के साथ-
दूसरी, खंरोचे गए अंतस की
पीड़ा से व्यथित
स्वतः बंद हो जाती है,
ढलक जाते हैं,
चंचल स्वप्न--
बहुत गहन चिंतन और अहसास से पूर्ण सुन्दर प्रस्तुति..बहुत संवेदनशील रचना..आभार
बहुत सुन्दर...............
सुंदर भाव
मेरे ब्लॉग में SMS की दुनिया ........
@ बंद दरवाजों के पीछे-
लज्जा, सिकुड कर
भय में बदल जाती है,
अपने भुज-बल पर
इतराता दर्प
और भी वीभत्स हो जाता है,
कामुक अंधेरों में--
--- विशेष तौर पर खींचती पंक्तियाँ हैं ये !
जीवन की खोटी हुई अर्थवत्ता को रखने की सुन्दर कोशिश ! समय और अस्तित्व के दबाव में हमारे सकारात्मक मनोवेगों का शिथिल/अर्थहीन होना दुर्भाग्यपूर्ण है ! अच्छी लगी कविता ! आपका सतत रचनात्मक परिचय आह्लादकारी है !
* खोटी हुई अर्थवत्ता
- 'खोटी' हुई में टाइपिंग मिस्टेक है , 'खोयी हुई' होगा ! क्षमासाहित...
jeevan bhram ka mayajaal hai....
bahut khoob...
bahut achchi lagi.
भ्रम में मुस्कुराना ..
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति.
bahut hi achha.
kripya meri kavita padhe aur upyukt raay den..
www.pradip13m.blospot.com
आपको दुआओं की जरूरत नहीं है. आपकी कवितायें ही दुआएं हैं.लिखती रहिये.
सुसुप्त है,
एक दृष्टि
श्रम और मद से शेथिल,
निश्चिन्तता के साथ-
दूसरी, खंरोचे गए अंतस की
पीड़ा से व्यथित
स्वतः बंद हो जाती है,
ढलक जाते हैं,
चंचल स्वप्न--
सम्मोहित करती हैं यह पंक्तियाँ विशेष.
दृष्टि का सुसुप्त होना, पाठक मन को भी साथ ले चलता है.
श्रेष्ठ कविता के लिए बधाई
जब मिला ना कोई सहज भाव भ्रम को ही अपना मान लिया
माना कि ,क ; है कहकर सभी प्रश्नों को हल किया
पर हाय नियति की चाले वह उत्तर ही फिर प्रश्न बना
फिर माना भ्रम क है , फिर से उत्तर को निकाल लिया
पर ये क्या फिर से वही हल , प्रश्न बनकर हुआ खड़ा
मै हल करता वह प्रश्न बनता ,बस यही सिलसिला सुरू हुआ
हूँ लगा इसी में आजतलक वह प्रश्न नहीं हुआ पूरा
लगता है इस जनम में इस भ्रम का हल रहेगा,
अधूरा ....बस अधूरा .....
उच्च स्तरीय कविता -
सुंदर अभिव्यक्ति -
शुभकामनाएं
बहुत संवेदनशील रचना
bahut hi sundar kavita , shabd apne bhaavo ko poorn roop se kahne me safal hue hai .. vyath ubhar kar aati hai ..
badhayi
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मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
"""" इस कविता का लिंक है ::::
http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
विजय
प्रिय ज्योत्सना जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
आज आपकी एक पुरानी रचना मुस्कराते भ्रम फिर से पढ़ने को मन हुआ …
सुसुप्त है,
एक दृष्टि श्रम और मद से शेथिल,
निश्चिन्तता के साथ-
दूसरी, खरोंचे गए अंतस की
पीड़ा से व्यथित
स्वतः बंद हो जाती है,
ढलक जाते हैं,
चंचल स्वप्न--
दिन के उजालों में
भ्रम फिर मुस्कराते हैं--
भावों का आलोड़न - विलोड़न अभिभूत कर रहा है ।
बहुत सुंदर ! अनुपम !
आपकी लेखनी अबाध - निर्बाध चलती रहे …
आपको तीन दिन पहले आ'कर गए
विश्व महिला दिवस की हार्दिक बधाई !
शुभकामनाएं !!
मंगलकामनाएं !!!
♥मां पत्नी बेटी बहन;देवियां हैं,चरणों पर शीश धरो!♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुंदर..पंक्तियाँ बहुत कुछ कह गयीं
http://shayaridays.blogspot.com
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