जानती हूँ
तुम्हारा दर्प
तुम्हारे भीतर छुपा है.
उस पर मैं
परत-दर-परत
चढाती रही हूँ
प्रेम के आवरण
जिन्हें ओढकर
तुम प्रेम से भरे
सभ्य और सौम्य हो जाते हो
जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं,
तुम्हारी खिसियाहट
कोंचती है
तुम्हारे दर्प को
और उठ बैठता है
वह फुंफकार कर
केंचुली की भांति
उतरते जाते हैं
प्रेम के आवरण
परत-दर-परत
हर बार की तरह तुम
क्षण भर में ही
उगल देते हो
ढेर सारा ज़हर
मेरे पीने के लिए
इस बार मैंने
ज़हर के बदले ज़हर को
न तो उगला है
न ही अंदर समेटा है
नीलकंठ की तरह
ओढ़ लिया है
एक आवरण मैंने भी
देखो न!
मेरी आँखों में चमक है
और चेहरे पे मुस्कराहट...
.
तुम्हारा दर्प
तुम्हारे भीतर छुपा है.
उस पर मैं
परत-दर-परत
चढाती रही हूँ
प्रेम के आवरण
जिन्हें ओढकर
तुम प्रेम से भरे
सभ्य और सौम्य हो जाते हो
जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं,
तुम्हारी खिसियाहट
कोंचती है
तुम्हारे दर्प को
और उठ बैठता है
वह फुंफकार कर
केंचुली की भांति
उतरते जाते हैं
प्रेम के आवरण
परत-दर-परत
हर बार की तरह तुम
क्षण भर में ही
उगल देते हो
ढेर सारा ज़हर
मेरे पीने के लिए
इस बार मैंने
ज़हर के बदले ज़हर को
न तो उगला है
न ही अंदर समेटा है
नीलकंठ की तरह
ओढ़ लिया है
एक आवरण मैंने भी
देखो न!
मेरी आँखों में चमक है
और चेहरे पे मुस्कराहट...
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16 comments:
बहुत ही सुन्दर प्रेम एवं दर्द की प्रस्तुति,आभार.
बहुत ही सुन्दर प्रेम एवं दर्द की प्रस्तुति,आभार.
bahut sundar rachna
बहुत अच्छी लगी कविता...
वाह...
बहुत बढ़िया....
जैसे को तैसा......
अनु
achha hai
Uttam Rachna.
bahut sundar ...ye to khud ko jeetna ho gya...
बहुत सुन्दर शब्द
beautiful.....
जब कभी भी
मेरे प्रश्न
तुम्हें निरुत्तरित कर देते हैं...
behad sundar
बहुत ही सुन्दर, kashmakash ko chitrit karti abhivyakti
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
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